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अंततः गत २७ अगस्त को सूर्यास्त के साथ अन्ना हजारे नीत देशव्यापी आन्दोलन का सुफल उदित हुआ। स्वतन्त्रता दिवस के अगले दिन १६ अगस्त से चल रहे अन्ना हजारे के अनशन के सामने भारत की कॉँग्रेस नीत केंद्र सरकार समेत पूरी संसद नतमस्तक हुई और उनके जन लोकपाल बिल पर बहुत हद तक सहमति जता दी। हालाँकि स्पष्टवादी लेकिन विनम्र अन्ना ने इसे आधी जीत ही बताया और अगले दिन २८ अगस्त को सुबह १०:२० बजे अपना १२ दिनी अनशन तोड़कर भारतीय जनता को संबोधित करते हुए घोषणा भी की कि लड़ाई अभी बाकी है। कुल मिलाकर अन्ना के आन्दोलन ने देश को एकजुट कर दिया। एक सही और समयानुरूप माँग को लेकर चलाये जा रहे इस आन्दोलन से जुड़ने में देश के हर आम-ओ-ख़ास ने कोई संकोच या नखरा नहीं किया। क्या युवा, क्या महिलाएँ, क्या वृद्ध और तो और वास्तविकता में कॉँग्रेस की विचारधारा पर कट्टरता से कायम कई कॉँग्रेसियों और गाँधीवादियों ने भी इस आन्दोलन का पुरज़ोर समर्थन किया। हाँ, ‘सोनिया-राहुल कॉँग्रेस’ के अनुयायी ज़रूर लाज़िम तौर पर इस आन्दोलन के ख़िलाफ़ दिखे। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इन सबके बीच एक समूह ऐसा भी दिखा जो स्वयं को कॉँग्रेस विरोधी कहता रहा, और अन्ना का समर्थन कर रहे सभी के सभी लोगों को कॉँग्रेस का समर्थक बताता रहा। ये समूह है कुछ ऐसे विचित्र बुद्धि वाले लोगों का जो अपने को बाबा रामदेव के कट्टर समर्थक और उनके आन्दोलन को ही सच्चा आन्दोलन बताते हैं और उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ज़रिये और आम जनों के बीच बेशर्मी के साथ यह बयार चलायी कि अन्ना हजारे और उनकी टीम के सदस्य कॉँग्रेस की कठपुतली हैं और बाबा रामदेव के प्रभाव को कम करने के लिए अन्ना के आन्दोलन को कॉँग्रेस ख़ुद ही अंदरखाने बढ़ावा दे रही है। वैसे इसमें इनका दोष नहीं है, असल में ज़रुरत से ज़्यादा बुद्धिमान बनने का दिखावा करने की परिणति यही होती है कि ऐसा व्यक्ति कुछ भी सोचता-बोलता रहता है और इसी तरह हर बात को संदेह की दृष्टि से देखते रहने का नतीजा यही होता है कि उस शख्स को सामान्य स्पष्ट दृष्टव्य में भी कुछ साज़िश की बू आती रहती है. हमारा यह उद्घाटन ब्लॉग रामदेव के ऐसे ही तथाकथित कतिपय समर्थकों को समर्पित है।
कहते हैं, “सत्य और साहस है जिसके मन में, अंत में जीत उसी की होय”। तभी तो अन्ना हजारे का आन्दोलन लगभग सफल हुआ। एक अनशन बाबा रामदेव ने भी किया था करीब ३ महीने पहले, जिसमें बेचारे बाबा जी का जो हश्र हुआ वो सबने देखा। दरअसल इन दिनों बाबा रामदेव के कुछ तथाकथित समर्थक बारम्बार यह हास्यास्पद आरोप लगाने में जुटे हैं कि अन्ना हजारे कॉँग्रेस से मिले हुए हैं और कॉँग्रेस ख़ुद अन्ना हजारे के आन्दोलन का अंदर ही अंदर समर्थन कर रही है, ताकि रामदेव के बढ़ते प्रभाव को कम किया जा सके। अब जबकि अन्ना के आन्दोलन की बावत विभिन्न प्रकार के आकलन व विश्लेषण किये जा रहे हैं तो हमने सोचा कि हम भी अन्ना और बाबा जी के लिए कुछ अन्वेषण कर लें, और करने से जो स्थिति स्पष्ट हुई वो इस प्रकार है- अन्ना के पीछे कॉँग्रेस है या नहीं, ये तो ऊपरवाला जाने, लेकिन रामदेव व कॉँग्रेस के बीच विवाद वैसा ही है जैसा उन दो भाइयों में होता है जो कभी तो एक-दूसरे के लिए जान देने के लिए तत्पर रहते हैं, लेकिन बाद में एक-दूसरे की जान लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। काला धन देश में वापस लाने का रामदेव का लक्ष्य (जनता को दिखाने के लिए) तो सही था, लेकिन उनके मन में सियासत करने का कीड़ा दशकों से बड़े भीषण ढंग से कुलबुला रहा था। तभी बीते कुछ वर्षों से योग शिविरों में वो कहा करते थे “अब मैं राजनीति में उतरूंगा, पार्टी बनाऊंगा।” वर्षों पूर्व कॉँग्रेस शासित उत्तराखंड राज्य में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सहायता से बाबा जी ने हरिद्वार में पैठ बनायी और अपना विश्वविद्यालय शुरू किया। क्यों, अरे नारायण दत्त कॉंग्रेसी हुए तो क्या हुआ, हैं तो बाबा जी के दोस्त, और इन दोनों की गलबहियाँ तो जगजाहिर हैं। फिर बाबा जी ने ४ जून को दिल्ली में अनशन की घोषणा की। जब वो दिल्ली पहुँचे तो बाकायदा तीन केन्द्रीय मंत्री (सब कॉंग्रेसी) उनकी अगवानी करने आये। क्यों, अरे अपना भाई जो आया था। किसी को अनशन पर बैठने के लिए कितनी जगह चाहिये, कमोबेश चंद वर्ग फ़ीट में काम चल जायेगा, लेकिन बाबा जी ने राम लीला मैदान में विशाल पंडाल लगवाया और एक बहुत बड़ा-ऊँचा मंच लगवाया।
इसी दौरान एक बेहतरीन होटल के बंद कमरे में बाबा जी और उनके कॉंग्रेसी बंधुओं के बीच विस्तृत मंत्रणा हुई, जिसके बारे में अंदरखाने से यह बात निकालकर सामने आयी कि बाबा जी की कई बातें मान ली गयीं। लेकिन ये कैसे? बाबा जी ये तो चाहते ही नहीं थे। अगर इतनी आसानी से बात बन जाती तो उनको सरकार और जनता से सामने शक्ति प्रदर्शन का सपना अधूरा न रह जाता! इसी के लिए तो उन्होंने कई किलो मीटर लम्बी यात्राएँ कर अपने अनुयायियों को वहाँ बुलाया था। लिहाज़ा सब दरकिनार कर ४ जून को बाबा जी योग शिविर की आड़ में अनशन पर बैठे। चलो ठीक है, कोई बात नहीं, लेकिन अनशन करना था तो मंच पर अकेले बैठकर करते, लेकिन उन्होंने मंच पर विभिन्न राजनीतिक लोगों को स्थान दिया। दिन भर वहाँ पेट फुला-पिचकाकर विभिन्न करतब दिखाये जाते रहे और साथ ही साथ सरकार के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जाता रहा। शाम तक तो बाबा जी ने ख़ुद ही कई-कई बार सरकार को तगड़ी कारवाई करने की चुनौती दी, जो कि उनकी प्लानिंग का हिस्सा थी, क्योंकि इससे उनकी सियासत और चमक जाती। अच्छी या बुरी कैसी भी सरकार हो, सीधी चुनौती कोई नहीं बर्दाश्त करेगी… और तानाशाह सरकार तो तुरंत ही दिमाग दुरुस्त कर देगी, फिर चाहे वो कोई सगा ही क्यों न हो। सरकार ने देखा कि ये तो उसका सगा ही उसके लिए नासूर बना जा रहा है। नतीजतन, जैसे शरीर किसी अंग में गलता लगने पर उसे काटना ही अंतिम उपाय होता है, सरकार ने भी बाबा जी के प्रति अपना प्रेम-स्नेह भुलाकर कड़ा कदम उठाने की ठानी। आधी रात को सरकार ने योग शिविर में हमला करवा दिया। इस वक़्त भी पहले बाबा जी ने फ़िल्मी हीरो की तरह मंच से छलांग लगा दी, लेकिन बाद में रील लाइफ़ और रियल लाइफ़ के बीच अंतर दिखने पर वो स्त्री भेष धरकर भाग निकले। पता नहीं गिरफ़्तार होने और जेल जाने से वह क्यों डर गये? लेकिन उनके पीठ दिखाकर भागने का ख़ामियाज़ा उनके सच्चे वफादार समर्थकों ने भुगता और उनका विश्वास अपने प्रिय बाबा जी पर से डिग गया।
खैर, बाबा जी यहाँ से अगले दिन सुबह ही हरिद्वार पहुँचा दिये गये कॉंग्रेस ने पुराने भ्रातृत्व का कुछ लिहाज़ रखा और उन्हें किसी और राज्य भेजने की बजाय सीधे उनके घर भेजा। यहाँ बाबा जी ने कहा कि उनका अनशन अभी चल रहा है। डूबते को तिनके के सहारे की तरह उनके समर्थकों को कुछ तसल्ली हुई, लेकिन नींबू-शहद के चटखारे लेते रहने के बावजूद ५ दिन में बाबा जी की हिम्मत जवाब दे गयी और उन्हें आइ.सी.यू. में भर्ती कराना पड़ा। हालाँकि वह कहते रहे कि अब माँग पूरे होने तक वो अनशन नहीं तोड़ेंगे, लेकिन अंततोगत्वा आठवें दिन उन्होंने अनशन तोड़ दिया, यह कहकर कि फलाँ जन ने मुझसे कहा तो मैंने अनशन तोड़ा. क्या बाबा जी, एक तो लोगों की उम्मीद पर खरे नहीं उतर सके, फिर स्पष्टीकरण दे रहे हो। इतिहास और वर्तमान गवाह हैं कि सामान्य जन भी कई-कई दिन लम्बे अनशन कर चुके हैं, लेकिन एक योगाचार्य एकदम ही गये-बीते निकले। इसीलिए लोगों का उन पर से विश्वास लगभग हट गया है, जिसे भाँपकर उन्होंने फिर से यात्राएँ करने की ठानी है, ताकि लोगों को सफाई दे सकें और आगे की सियासी चाल के लिए उन्हें फिर से जोड़ सकें। दरअसल बाबा जी तो भारत का प्रधान मंत्री बनने का ख़्वाब देख रहे थे, इसका एक सबूत है बाबा जी की प्रमुख माँगों में से एक माँग कि देश में प्रधान मंत्री का चुनाव सीधे जनता करे। बाबा जी के चतुर मष्तिष्क में पूरी प्लानिंग थी कि वो इस तरह सरकार और जनता के सामने शक्ति प्रदर्शन करेंगे, जिससे सरकार डरकर उनकी सारी माँगें मान लेगी और इस तरह वो भारतवासियों को प्रभावित कर लेंगे। फिर अपने पूर्वघोषणा के अनुसार वो अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन करेंगे और लोक सभा चुनाव में ख़ुद या किसी दूसरे से ख़ुद को प्रस्तावित कराकर जनता के सामने प्रधान मंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में सामने आयेंगे। लेकिन, (हाय री फूटी किस्मत) ऐसा हुआ कि वो माँग ही नहीं मानी गयी। अब बाबा जी चाहें जो तर्क-तथ्य बताएँ, सच तो यह है कि यही कुछ माँगें ऐसी थीं जिन पर सहमति नहीं बन सकी और उनकी पूरी योजना धूमिल हो गयी।
अब अन्ना हजारे के आन्दोलन के दौरान जब सबको एक होना चाहिये था, तो बाबा रामदेव के समर्थक अलग-थलग रहे। और ज्यों-ज्यों अन्ना हजारे का आन्दोलन देशव्यापी विस्तार करने लगा, उनके सीने पर जैसे बर्छियाँ चलने लगीं, जो आन्दोलन की सफलता के साथ-साथ तेज़ प्रहार करने लगीं. इस दौरान उन्होंने नये-नये आरोप लगाए और ‘सोनिया-राहुल कॉँग्रेस’ के अनुषांगिक संगठन की भूमिका निभायी। अपने आरोप लगाने के काम के लिए अब उन्होंने नया तथ्य सोच लिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कंधे पर रखकर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि अन्ना के आन्दोलन को सफल कराकर कॉँग्रेस दरअसल संघ और भारतीय जनता पार्टी का नुक्सान करना चाहती है। कितना हास्यास्पद आरोप जड़ दिया बाबा जी के कट्टर समर्थकों ने! उन्होंने तो इतना सोच लिया, जितना कुप्पहल्ली सीतारामैया सुदर्शन और मोहन राव भागवत जैसे संघ के बौद्धिक लोगों ने भी नहीं सोचा था। असल में यहाँ बात केवल ईगो की थी। रामदेव समर्थकों के हिसाब से देश में अच्छे काम का ठेका केवल बाबा जी के पास होना चाहिये, फिर अन्ना कैसे एक अच्छा काम कर सकते हैं। उनका कहना था कि अन्ना ने रामदेव को मंच पर बैठाने से मना कर दिया। देखा जाये तो इसमें ग़लत क्या है? रामदेव समर्थन के लिए सामने आते, कोई मनाही नहीं थी। लेकिन अगर एक जन आन्दोलन को राजनीतिक रंग देने से रोकने के लिए ऐसा फ़ैसला किया गया तो इसमें क्या बुराई थी? फिर उन्होंने इल्ज़ाम लगा दिया कि अन्ना के आन्दोलन के लिए कुछ कॉँग्रेस नेताओं ने भी चंदा दिया, जिसका ब्यौरा ख़ुद उनके संगठन ने सूची में दिया है. इस हास्यास्पद आरोप पर केवल इतना कहना है कि ये तो टीम अन्ना की सत्यता है कि उसने सब बातें सार्वजानिक रखीं। और फिर कॉँग्रेस नेताओं ने भी चंदा दिया तो इसमें क्या आफत आ गयी? क्या वो पहले इंसान नहीं हैं, या फिर भ्रष्टाचार उनको अच्छा लग रहा है? ऐसे चिंतकों से केवल इतना कहना है कि शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत संघ की संस्था विद्या भारती है, जो शिशु मंदिर विद्यालयों का संचालन करती है। शिशु मंदिरों के लिए सिंधिया परिवार ने कितना योगदान दिया है, यह जगजाहिर है। आज भी कुछ शिशु मंदिरों में विजया राजे सिंधिया व माधव राव सिंधिया की फ़ोटो सम्मान के साथ लगी मिल जाएगी तो क्या माधव राव संघी हो गये थे या शिशु मंदिर कॉँग्रेस की संपत्ति हो गये?
कहा जाता है कि “आरम्भे समाप्ये शनि भौम वारे”, अर्थात ऎसी मान्यता है कि किसी भी नये काम का आरम्भ शनिवार अथवा मंगलवार को करना चाहिये, कार्य शुभ होता है। संयोग से बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने भी अपने अनशन क्रमशः ४ जून (शनिवार) और १६ अगस्त (मंगलवार) को शुरू किये थे। इनमें अन्ना हजारे का आदोलन तो काफ़ी हद तक कामयाब कहा जा सकता है, लेकिन बाबा रामदेव का आन्दोलन निष्फल और अपमानदायक रहा। दरअसल धार्मिक मान्यता है कि शनिवार शनिदेव का दिन होता है और शनिदेव न्याय के सिंहासन पर आसीन हैं तथा लोगों को उनके कर्मों का फल देते हैं। बाबा जी ने शनिवार को अपना आन्दोलन शुरू किया। साधु भेषधारी व्यक्ति के मन में ऐसी कुटिल योजना देख शनिदेव ने त्वरित न्याय करते हुए दंड दिया और बाबा जी का आन्दोलन पहले तो रामलीला मैदान पर चौपट हुआ, फिर बाद में बाबा जी द्वारा हार मानकर अनशन तोड़ देने से वो असफल भी हो गया। फिलहाल यह लेख बाबा जी के अन्ना विरोधी समर्थकों को बुरा ज़रूर लगेगा, लेकिन ज़रा सा भी इस नज़रिये से देखने पर स्पष्ट है कि काले धन को लेकर आन्दोलन की आड़ में बाबा जी की वास्तविक योजना क्या थी। हाँ, अब एक सवाल का जवाब वो अवश्य दे दें, कि अगर कतिपय स्पष्ट बातों के आधार पर वो अन्ना हजारे को कॉंग्रेसी कैसे साबित कर सकते हैं, जब कि इससे कई हज़ार गुना सबूत तो बाबा रामदेव के कॉंग्रेसी होने के हैं?
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